Saturday 30 April 2011

भेड़ियों के सम्मुख

रेल की पटरियों सा
हो गया जीवन
कुछ पाने के लिए
हम भटकते रहे
अर्थ लाभ के लिए
बर्फ से गलते रहे
सुख की कामना में
जर्जर हो गया तन
स्वाभिमान भी रख
गिरवीं नागोँ के हाथ
भेड़ियों के सम्मुख
टिका दिया माथ
इस तरह होता रहा
अपना रोज चीरहरन
रेल की पटरियों सा
हो गया जीवन

3 comments:

  1. सुख की कामना में
    जर्जर हो गया तन
    स्वाभिमान भी रख
    गिरवीं नागोँ के हाथ...

    Wonderful creation !

    This is how we are living our lives. So mechanical and helpless. All we need is to bring some zeal in our lives.

    .

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  2. .

    It's the first time i have visited your blog. The poems are so appealing and meaningful.

    Thanks and regards.

    .

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  3. दिव्या जी , आपने मेरे ब्लॉग के लिए समय निकला | आपका बहुत बहुत आभार |

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