मेहमान नवाजी के लिए मशहूर थे काजी शौकत हुसैन
मेहमान नवाजी का जब कभी जिक्र होता है तो काजी शौकत हुसैन खां की यादें ताजा हो जाती हैं। यह दौर था उन्नीसवीं सदी का आखिरी और 20 वीं सदी का शुरुआती। उस समय मुरादाबाद में आने वाली नामवर हस्तियों में शायद ही कोई ऐसी हस्ती हो जो काजी शौकत हुसैन खां की मेहमान न बनी हो। वह एक ऐसी शख्सियत थे, जिन्हें जनता और सरकार दोनों में लोकप्रियता हासिल थी। जनता जहां उन्हें 'अजीमुल मर्तबतÓ (महान रुतबे वाला)से संबोधित करती थी वहीं अंग्रेज सरकार ने उन्हें खान बहादुर की उपाधि से विभूषित किया तथा आजीवन अवैतनिक स्पेशल मजिस्ट्रेट नियुक्त किया। काजी उनकी पारिवारिक उपाधि थी। उनके पूर्वज मुगल सम्राट शाहजहां के शासनकाल में यहां शहर काजी बन कर आए और सन 1774 तक इस पद पर नियुक्त होते रहे। इसी दौरान मुगल सम्राटों ने उन्हें जागीरें भी दीं।
उनके पिता काजी मुहम्मद तजम्मुल हुसैन खां ने शौकत बाग का निर्माण कराया था, लेकिन उसे ख्याति सन 1865 में पैदा काजी शौकत हुसैन के समय में मिली। उनके प्रपौत्र काजी नुसरत हुसैन खां के बेटे काजी शौकत हुसैन खां बताते हैं कि शौकत बाग में विशाल कोठी और दीवान खाना था, जिसके चारों ओर हरियाली ही हरियाली थी। दुर्लभ प्रजाति के अनेक पेड़ बाग में थे। पूरा वातावरण फूलों की खुशबू से महकता था। शौकत बाग के दीवानखाने में जहां मुकदमों का फैसला होता था तो वहीं मेहमानखाने में सम्मानित अतिथियों को ठहराया जाता था और उन्हें दावतें दी जाती थीं। यह सिलसिला काजी शौकत हुसैन की मृत्यु (सन 1935) तक चलता रहा। वह बताते हैं कि शौकत बाग लगभग 25 बीघे में था। सन 1974 में यह बाग उजड़ गया। दरअसल सीलिंग के कारण यहां रिहाइश शुरू हो गई और आज उसने एक मुहल्ले का रूप ले लिया।
अनेक रियासतों के नवाब बन चुके हैं मेहमान
काजी जी के मेहमान बनने वालों में भोपाल के नवाब हमीदुल्ला खां, रामपुर के नवाब सर हामिद अली खां, छतारी के नवाब अहमद सईद खां, सर जेम्स मेंस्टन, सर विलियम मेलकम हेली, नवाब विकारुमुल्क, मौलाना मुहम्मद अली मौलाना शौकत अली, हाजी अजमल खां, हजरत शेखुल हिंद, मौलाना महमूदल हसन, हैदराबाद के नवाब मोहसिनुल मुल्क, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संस्थापक सर सैयद अहमद खां, पंडित मदन मोहन मालवीय आदि मुख्य थे
अनेक राजनीतिक हस्तियों के आगमन का भी है गवाह शौकत बाग
काजी शौकत हुसैन की मृत्यु के बाद भी यहां अनेक राजनीतिक हस्तियों का आगमन हुआ। उनके दूसरे प्रपौत्र काजी मुशर्रत हुसैन बताते हैं कि हेमवती नंदन बहुगुणा, बनारसी दास गुप्ता, चौधरी चरण सिंह, चंद्रशेखर, नारायण दत्त तिवारी, मुलायम सिंह यादव, अजित सिंह, सुनील शास्त्री, राम विलास पासवान भी यहां आ चुके हैं। यहांअनेक राजनीतिक दलों की जनसभाएं भी होती रही हैं। यही नहीं यहां तीन बैडमिंटन कोर्ट भी थे, जहां शहर के तमाम खिलाड़ी आते थे।
सन 1916 में प्रकाशित हुआ था
दीवान 'शौकते सुखनÓ
काजी शौकत हुसैन को अरबी फारसी में भी महारथ हासिल थी। वह शायर भी थे और मशहूर शायर दाग देहलवी के शागिर्द थे। इतिहासकार डॉ. आसिफ बताते हैं कि शौकत बाग में वह हर महीने मुशायरे का आयोजन करते थे और उसकी पूरी रिपोर्ट गुलदस्ता ए शौकते सुखन के नाम से छपवा कर वितरित करते थे। सन 1926 में उन्होंने देहरादून में भी मुशायरा आयोजित किया था। उनका एक दीवान 'शौकते सुखनÓ सन 1916 में प्रकाशित हुआ था। वह उनका एक चर्चित शेर भी सुनाते हैं- हुआ जो होना था खैर शौकत, बस अब ना रूठो मिलाप कर लो। कि बांहे डाले हुए गले में, तुम्हें वो कब से मना रहे हैं।
अनेक रियासतों के नवाब बन चुके हैं मेहमान
काजी जी के मेहमान बनने वालों में भोपाल के नवाब हमीदुल्ला खां, रामपुर के नवाब सर हामिद अली खां, छतारी के नवाब अहमद सईद खां, सर जेम्स मेंस्टन, सर विलियम मेलकम हेली, नवाब विकारुमुल्क, मौलाना मुहम्मद अली मौलाना शौकत अली, हाजी अजमल खां, हजरत शेखुल हिंद, मौलाना महमूदल हसन, हैदराबाद के नवाब मोहसिनुल मुल्क, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संस्थापक सर सैयद अहमद खां, पंडित मदन मोहन मालवीय आदि मुख्य थे
अनेक राजनीतिक हस्तियों के आगमन का भी है गवाह शौकत बाग
काजी शौकत हुसैन की मृत्यु के बाद भी यहां अनेक राजनीतिक हस्तियों का आगमन हुआ। उनके दूसरे प्रपौत्र काजी मुशर्रत हुसैन बताते हैं कि हेमवती नंदन बहुगुणा, बनारसी दास गुप्ता, चौधरी चरण सिंह, चंद्रशेखर, नारायण दत्त तिवारी, मुलायम सिंह यादव, अजित सिंह, सुनील शास्त्री, राम विलास पासवान भी यहां आ चुके हैं। यहांअनेक राजनीतिक दलों की जनसभाएं भी होती रही हैं। यही नहीं यहां तीन बैडमिंटन कोर्ट भी थे, जहां शहर के तमाम खिलाड़ी आते थे।
सन 1916 में प्रकाशित हुआ था
दीवान 'शौकते सुखनÓ
काजी शौकत हुसैन को अरबी फारसी में भी महारथ हासिल थी। वह शायर भी थे और मशहूर शायर दाग देहलवी के शागिर्द थे। इतिहासकार डॉ. आसिफ बताते हैं कि शौकत बाग में वह हर महीने मुशायरे का आयोजन करते थे और उसकी पूरी रिपोर्ट गुलदस्ता ए शौकते सुखन के नाम से छपवा कर वितरित करते थे। सन 1926 में उन्होंने देहरादून में भी मुशायरा आयोजित किया था। उनका एक दीवान 'शौकते सुखनÓ सन 1916 में प्रकाशित हुआ था। वह उनका एक चर्चित शेर भी सुनाते हैं- हुआ जो होना था खैर शौकत, बस अब ना रूठो मिलाप कर लो। कि बांहे डाले हुए गले में, तुम्हें वो कब से मना रहे हैं।
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल रस्तोगी
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन 9456687822